भूमि का चयन और तैयारी
शिमला मिर्च मध्य क्षेत्रों की एक प्रमुख नकदी फसल है। इसकी काश्त हिमाचल प्रदेश में करना। मुख्य तौर पर सोलन, सिरमौर, कांगड़ा, मंडी, कुल्लू व चम्बा में की जाती है। शिमला मिर्च की खेती के लिए अच्छी जल निकासी वाली मध्यम रेतीली दोमट भूमि उपुयक्त होती है। मृदा की पीएच 5.5 से 6.8 तथा जैविक कार्बन 1 प्रतिशत से अधिक होनी चाहिए। मृदा में पीएच स्तर, जैविक कार्बन, गौण पोषक तत्व (एनपीके), सूक्ष्म पोषक तत्व तथा खेत में सूक्ष्म जीवों के प्रभाव की मात्रा की जांच करवाने हेतू वर्ष में एक बार मृदा परीक्षण जरूरी है। यदि जैविक कार्बन तत्व एक प्रतिशत से कम हो तो खेत में 20-25 टन/हे० गोबर की खाद का प्रयोग करें तथा खेत में भली प्रकार से 2-3 बार हल चलाकर गोबर को मिलाएं। हर बुआई के बाद सुहागा प्रयोग में लायें ताकि खेत में किसी प्रकार के ढेले न रहें और खेत अच्छी प्रकार समतल हो।
बुआई का समय
निचले पर्वतीय क्षेत्र – फरवरी से मार्च
मध्य पर्वतीय क्षेत्र – मार्च से मई
ऊंचे पर्वतीय क्षेत्र – रोपण योग्य पौध को निचले या मध्य पर्वतीय क्षेत्रे से लाना या पौध को नियन्त्रण वातावरण में इस तरह तैयार करें ताकि अप्रैल-मई में रोपाई हो सके। बीज अंकुरण के समय तापमान 20° सैल्सियस होना चाहिए। जब पौध 10-15 सें.मी. ऊंची हो जाए तो खेत में शाम के समय इसकी रोपाई करें। रोपाई के बाद सिंचाई करना और कुछ दिनों तक सुबह-शाम पानी देना अति आवश्यक है।
अनुमोदित किस्में
केलीफोर्निया वन्डर, यलो वन्डर, सोलन भरपूर, भारत, सोलन संकर -1, सोलन संकर -2,
इंदिरा, डौलर एवं स्थानीय किस्में।
बीज का उपचार
बीज क्यारियों में बोने से पहले बीजों को 4 ग्राम/कि.ग्रा. के हिसाब से ट्राइकोडर्मा विरिडी से उपचारित किया जाना चाहिए। बीज क्यारियों में बोया जाता है। जिनका आकार 1 मी. x 3 मी. x 20 सें.मी. होना चाहिए। बीज की क्यारियों में गोबर की खाद 20 से 25 कि. ग्रा. तथा ट्राईकोडर्मा हरजियानम 4 ग्राम/किलोग्राम और कारंज (पोगमिया)/नीम की खली शामिल किए जाते हैं। बीजों को 1 प्रतिशत पंचगव्य के साथ 12 घंटों तक संसाधित करना अच्छा होता है। ऐसी 30 क्यारियों में 400 ग्राम बीज खुली परागित सामान्य किस्मों का तथा 200 ग्राम संकर किस्मों को बोया जाता है जिससे 1 हैक्टेयर | भूमि के लिए पौध तैयार होती है। पौध को टमाटर की तरह संसाधित करें।
बीज दर और अन्तराल
बीज मात्रा
सामान्य किस्में 750-900 ग्राम/हे०
संकर किस्में 200-250 ग्राम/हे०)
अन्तराल (खेत में)
पंक्ति से पंक्ति 60 सें.मी.
पौधे से पौध 45 सें.मी.
(नर्सरी में)
पंक्ति से पंक्ति 5 सें.मी.
पौधे से पौधे 2 सें.मी.
बीज बोने की गहराई 0.5 सें.मी. से 1.0 सें.मी.
मृदा उर्वरक प्रबन्धन
फलीदार जैसी दलहनी परिवार की फसलों के साथ आवर्तन से मृदा में नाईट्रोजन की स्थिति समृद्ध होती है। खेत में तीन-चार बार हल चलाएं तथा प्रत्येक जुताई के बाद सुहागा चलाएं जिससे मिट्टी भुरभुरी हो जाए। खेत में 20 टन/हे० गोबर की खाद तथा 2 टन/हे० बी.डी. कम्पोस्ट या 15 टन/हे० वर्मी कम्पोस्ट तथा 2 टन/हे० बी.डी. कम्पोस्ट डालें।
सिंचाई व जल प्रबन्धन
प्रतिरोपण के तत्काल बाद, फूल आने पर और फल विकास की अवस्था में पानी की कमी नहीं आनी चाहिए। शुष्क मौसम के दौरान प्रतिरोपण के बाद पहले माह 3-4 दिन के अन्तराल पर सिंचाई और तदोपरांत फसल तैयार होने तक 7-10 दिन के अन्तराल पर जल निकासी पर ध्यान दें। खेतों में अधिक नमी से फसल खराब हो जाती है। इसलिए खेत में पानी खड़ा न होने दें।
खरपतवार प्रबन्धन
खरपतवार को नियन्त्रण में रखने के लिए फसल चक्र अपनाएं। हाथ द्वारा खरपतवार निकालने से मृदा ढीली हो जाती है जो मिट्टी को भुरभुरा बनाती है। रोपाई के 30-50 दिन तक खरपतवार न उगने दें। तीन-चार बार गुड़ाई के साथ खरपतवार निकाल दें।
पौध संरक्षण
(अ) कीट | ||
कीट मक्खियां – | तेले तथा थ्रिप्स पत्तों का रस चूसकर पौधे को हानि पहुंचाते हैं। तेला तथा मक्खियां कभी-कभी विषाणु रोग को भी फैलातीहैं।
रोकथाम रस चूसने वाले कीटों की रोकथाम के लिए नीम तेल 3 मि.ली./लीटर पानी में अथवा वरटीसीलियम लेकेनाई 0.03 प्रतिशत घोल अथवा घनीरी अर्क 5 प्रतिशत का प्रयोग उपयुक्त होता है। |
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दीमक व टीड़े मकोड़े – | ये निचले पर्वतीय क्षेत्रों के असिंचित इलाकों में अंकुरित पौधों को मार देते हैं।
रोकथाम – फसल बिजाई के समय जमीन में नीम के पत्ते से तैयार की गई खाद (5 क्विंटल/हे०) या नीम के बीजों से तैयार खाद (1 क्विंटल/हे०) का प्रयोग करने से दीमक का प्रकोप कम हो जाता है। चूना और गन्धक का मिश्रण जमीन में डालने से दीमक के प्रकोप में कमी आती है। लकड़ी से प्राप्त राख को पौधों के तनों के मूल में डालने से दीमक के प्रकोप में कमी आती है। पशू-मूत्र को पानी के साथ 1-6 अनुपात में मिलाकर बार-बार दीमक के घरों में डालने से इनके प्रसार को रोका जा सकता है। वीवेरिया या मोटाराईजियम फफूद का कण अवस्था में (6 ग्राम प्रति वर्ग मीटर) प्रयोग करें। |
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(ब) बीमारियां | ||
कमर तोड़ – | बीज से पौध बनते ही मुरझा जाता है।
रोकथाम –
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फल सड़न – | फलों पर छोटे-छोटे पीले धब्बे बन जाते हैं और फल पूर्णत- सड़ जाता है। ऐसे ही धब्बे पत्तों पर आते हैं और वह सड़ जाते हैं।
रोकथाम –
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चूर्ण आसिता रोग – | रोग से प्रभावित पौधों पर फफूद की सफेद से मटमैली रूई की हल्की तह नजर आती है।
रोकथाम –
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सर्कोस्पोरा पत्तों का धब्बा – | पत्तियों पर गोल-गोल धब्बे बन जाते हैं, जिनके किनारे भूरे रंग के साथ केन्द्र धुंधले रंग के होते हैं। पत्तियों पर जब काफी धब्बे बन जाते हैं तो ग्रस्त पत्तियां पीली पड़ जाती हैं तथा समय से पहले जमीन पर गिर जाती हैं।
रोकथाम –
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पाउडरी मिल्ड्यू – | इस रोग के कारण पत्तों की निचली सतह पर सफेद-सफेद धब्बे बनते हैं तथा उनके
ऊपर फफूद चूर्ण के रूप में उभर आती है। जिसके अनुरूप पत्तों की ऊपरी सतह पर पीले धब्बे बनते हैं और प्रभावित पत्ते समय से पहले गिर जाते हैं। रोकथाम –
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मिर्च का वेनल मौटल रोग –
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रोगग्रस्त पौधों के पत्तों में गहरे हरे रंग के धब्बे बन जाते हैं और शिराओं के आसपास गहरे रंग के बिन्दु व पट्टियां बन जाती हैं। यह चितकबरे धब्बे कम उम्र के पौधों पर ज्यादा नजर आते हैं। रोगग्रस्त पत्ते आकार में छोटे तथा अलग- अलग तरह से विकृत हो जाते हैं। शुरू में ही रोगग्रस्त पौधे बौने दिखते हैं और उनके तने तथा शाखाओं पर गहरी हरे रंग की धारियां नजर आती हैं। उनके अधिकतम फूल फल बनने से पहले ही झड़ जाते हैं।
रोकथाम –
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मिर्च का मोजेक रोग –
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पत्तों पर हरे और पीले रंग के धब्बे प्रकट हो जाते हैं और हल्के गड्ढे तथा फफोले भी दिखाई देते हैं। कभी-कभी पत्ती का आकार अति सूक्ष्म और सूत्राकार हो जाता है। रोगी पौधों में फूल और फल कम लगते हैं तथा फल खुरदुरे व विकृत हो जाते हैं।
रोकथाम –
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बीज उत्पादन –
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बीज वाली फसल को सामान्य फसल की भांति ही लगाया जाता है। फसल का कम से कम तीन अवस्थाओं
बीज एकत्रित करने के लिए उचित पके फलों को दो भागों में काट लिया जाता है और बीज को निकालने के बाद छाया में सुखा लें। |
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बीज की उपज – | 75-100 कि.ग्रा. प्रति हैक्टेयर (6-8 कि.ग्रा. प्रति बीघा) |